Chipko Movement : पेड़ जीवन के लिए कितने जरूरी हैं..हम सब जानते हैं। इसीलिए ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने और उन्हें संरक्षित करने की बात होती है। लेकिन दिनोंदिन कटते पेड़ और घटते जंगल एक चेतावनी है कि अगर हम अब भी न संभले तो आने वाले समय में बड़ी मुश्किल में पड़ सकते हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग से हो रहे बदलाव हम सब देख रहे हैं और ये स्थिति हमें आगाह कर रही है पेड़ों को बचाने के लिए।
आप और हम पेड़ बचाने के लिए क्या कर सकते हैं ? क्या अपनी जान दांव पर लगा सकते हैं ? ये सवाल इसलिए क्योंकि आज ही वो तारीख है जब 51 साल पहले उत्तराखंड में कुछ महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी। हम बात कर रह हैं चिपको आंदोलन की।
क्या है “चिपको आंदोलन”
हिमालय की हरी-भरी वादियों में 1970 के दशक में एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ जिसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। ‘चिपको आंदोलन’ भारत का एक प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलन था जिसकी शुरुआत 1973 में उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले से हुई। अगर आसान भाषा में समझें तो यह पेड़ों को कटाई से बचाने की एक जंग थी, जिसमें आम लोग..खासकर महिलाएं सबसे अधिक संख्या में सामने आईं।
उत्तराखंड के जंगलों में उस वक्त लकड़ी के लिए पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई हो रही थी। इससे न सिर्फ जंगल खत्म हो रहे थे, बल्कि पहाड़ों में लैंड स्लाइडिंग और बाढ़ सहित कई तरह की समस्याएं बढ़ रही थी। स्थानीय लोगों ने इस बात को देखा और समझा कि उनके जीवन का आधार जंगल खतरे में है। बस..उन्होंने फैसला किया कि आवाज उठाने का समय आ गया है।
आंदोलन को इसलिए मिला ये नाम
इस आंदोलन की सबसे खास बात थी इसका तरीका। ये एक अहिंसक आंदोलन था। इसमें स्थानीय लोग पेड़ों से चिपककर खड़े हो जाते थे ताकि ठेकेदार या वन विभाग के लोग उन्हें काट न सकें। इसीलिए इसे ‘चिपको आंदोलन’ नाम मिला। इस आंदोलन का नेतृत्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट ने किया था। महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया..जिनमें गौरा देवी सबसे प्रमुख थीं। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर जंगलों को बचाने का प्रयास किया।
चिपको आंदोलन का असर : सरकार ने पेड़ों की कटाई पर लगाया प्रतिबंध
चिपको आंदोलन का असर यह हुआ कि सरकार को जंगलों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालय क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया। ये आंदोलन आगे चलकर भारत में पर्यावरण सुरक्षा की दिशा में एक बड़ा मील का पत्थर साबित हुआ। आज भी दुनियाभर में ‘चिपको आंदोलन’ पर्यावरण और वन संरक्षण के लिए एक मिसाल के रूप में याद किया जाता है।
आज का दिन गौरा देवी के साहस के नाम
अब आते हैं 26 मार्च 1974 पर..इस दिन उत्तराखंड में चमोली जिले के रैणी गांव में एक ऐतिहासिक घटना हुई थी जो चिपको आंदोलन का सबसे यादगार पल बन गया। उस दिन गौरा देवी के नेतृत्व में गांव की महिलाओं ने अपनी जान की परवाह न करते हुए पेड़ों को बचाने का फैसला किया।
दरअसल, जंगल में पेड़ काटने के लिए ठेकेदार और वन विभाग के लोग आए थे। उस समय जब गांव में पुरुष नहीं थे..गौरा देवी ने हिम्मत दिखाई और लगभग 27 महिलाओं और बच्चों के साथ पेड़ों को बचाने के लिए सामने आईं। उन सभी ने अपनी बाहों से घेर लिया कहा कि ये जंगल हमारा मायका है, हम इसे कटने नहीं देंगे। उनके इस साहसिक कदम के कारण ठेकेदारों को पीछे हटना पड़ा और पेड़ नहीं काटे गए। इस घटना ने पूरे देश में पर्यावरण संरक्षण की एक नई चेतना जगाई और आज भी गौरा देवी और उनका साथ देने वाले सभी लोगों को बेहतर सम्मान के साथ याद किया जाता है।
