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हरियाली तीज पर, पिया मोय, सावन शुगन मनाऊंगी, भैया आयो मोय लिवावे, मैं पीहर कू जाऊंगी!

रिमझिम वर्षा के बीच जब प्रकति हरी भरी होकर मंद मंद मुस्कुराती है तो हर किसी का मन प्रफुल्लित हो जाता है।फिर चाहे उमा हो या फिर सुनीता,रश्मि,रेखा, रचना,श्रद्धा,उर्वशी,गार्गी ,विदेही,सभी नारी शक्तियों का एक ही मन है कि सावन के इस महीने में पेड़ पर या फिर दलान में झूला डालकर उन्मुक्त हवाओ की सैर की जाए ।उनकी सोच है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सावन के लोकगीत गाकर अपनी संस्कृति को जिंदा रखने की हर संभव कोशिश होती रहे। गांव- गांव और शहर -शहर  जैसे जैसे हरियाली तीज  का त्यौहार नजदीक आता है, रिमझिम बारिश की फुहारों के बीच सावन की बहार भी आनी शुरू हो जाती है।  लगभग हर गांव व हर शहर में पेड़ों पर या फिर घरो में  झूले पड़े मिल जाते है। हालांकि जगह की कमी के चलते और संयुक्त परिवार के अभाव में अब झूले भी अतीत बनते जा रहे है।
सावन की  कभी गर्मी पड़ती है तो थोड़ी देर में ही बरसात आकर तन-मन को भिगो देती है। सावन का प्रिय व्यंजन घेवर है जिसे  खाने-खिलाने की होड़ सी लगी रहती है। घेवर ही सावन माह की खास मिठाई है। मंदिरों में वेद,पुराण व भागवत की कथाएं चलती रहती है। भंडारे होना भी आम बात हैं। विवाहित महिलाएं अपने मायके आकर यह त्यौहार मनाने की कोशिश करती हैं तो नवविवाहिताओं को सिंधारा जिसे कोथली भी कहते है, भिजवाई  जाती है। तीज चूंकि सावन माह का पर्व है और कल्याणकारी भगवान शिव की स्तुति, उपासना व प्रार्थना का दौर विशेष रूप से इस माह में चलता है।
सावन माह में जब प्रकृति ने हरियाली की चादर ओढ़ी होती है, तब हर किसी के मन में उन्मुक्तता के मोर नाचने लगते हैं| पेड़ों की डाल पर या फिर घरो के दलान में झूले पड़ जाते हैं| सुहागन स्त्रियों के लिए यह व्रत बहुत ही महत्वपूर्व है| आस्था, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव भगवान शिव और माता पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है| चारों तरफ हरियाली होने के कारण इसे हरियाली तीज कहते हैं| इस अवसर पर महिलाएं झूला झूलती हैं, गाती हैं और खुशियां मनाती हैं|महिलाएं इस दिन  ‘उमामहेश्वरसायुज्य सिद्धये हरितालिका व्रतमहं करिष्ये’ मंत्र का जाप करें| पूजा शुरू करने से पूर्व काली मिट्टी से भगवान शिव और मां पार्वती तथा भगवान गणेश की प्रतिमा बनाकर स्थापित करे।फिर थाली में सुहाग की सामग्रियों को सजा कर माता पार्वती को अर्पण करें व भगवान शिव को उनके वस्त्र अर्पण करें ।
तीज का कथासार है कि एक शिव पार्वती से कहते है, पार्वती तुमने मुझे अपने पति रूप में पाने के लिए 107 बार जन्म लिया, किन्तु मुझे पति के रूप में पा न सकीं| 108 वीं बार तुमने पर्वतराज हिमालय के घर जन्म लिया|  तुमने मुझे वर के रूप में पाने के लिए हिमालय पर घोर तप किया था| इस दौरान तुमने अन्न-जल त्याग कर सूखे पत्ते चबाकर दिन व्यतीत किये। मौसम की परवाह किए बिना तुमने निरंतर तप करती रही| तुम्हारी इस स्थिति को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ थे| परन्तु तुम वन में एक गुफा के भीतर मेरी आराधना में लीन थी| भाद्रपद तृतीय शुक्ल को तुमने रेत से एक शिवलिंग का निर्माण कर मेरी आराधना की जिससे प्रसन्न होकर मैंने तुम्हारी मनोकामना पूर्ण की| इसके बाद तुमने अपने पिता से कहा कि ‘पिताजी,  मैंने अपने जीवन का लंबा समय भगवान शिव की तपस्या में बिताया है और भगवान शिव ने मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे स्वीकार कर लिया है| अब मैं आपके साथ एक ही शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह भगवान शिव के साथ ही करेंगे|” पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हें घर वापस ले गये| कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि विधान के साथ  विवाह किया|”  “हे पार्वती! भाद्रपद शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका| इस व्रत का महत्त्व यह है कि इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को  वांछित फल मिलता है| भगवान शिव ने पार्वती जी को वरदान दिया कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेंगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग की प्राप्ति होगी|सावन आते ही महिलाएं अपने भाई-भाभी व बहनो से मिलने की उम्मीद करने लगती हैं। वे अपने पति व सास से अपने मायके जाने की विनय प्रार्थना करने लगती हैं ।गीत भी है, बहुत दिना हो गए पिया मोय, सावन शुगन मनाऊंगी, भैया आयो मोय लिवावे, मैं पीहर कू जाऊंगी।वही सावन आने की प्रार्थना भी कुछ इस तरह से की जाती है,
कच्चे नीम की निबौरी, सावन जल्दी अईयो रे, अम्मा दूर मत दीजौ, दादा नहीं बुलावेंगे, भाभी दूर मत दीजौ, भइया नहीं बुलावेंगे।सावन में तीज पर
झूले पर झूलती हुई किशोरियों को देखकर उनके मन की उन्मुक्तता का अहसास होता है। लड़कियां पेड़ व मुंडेरों पर बैठी हुई चिड़ियों को देखकर अपने मन के भाव को कुछ यूं प्रकट कर देती हैं ,
पेड़ पै दो चिड़ियां चूं-चूं करती जाएं, वहां से निकले हमारे भइया, क्या-क्या सौदा लाए जी, मां को साड़ी, बाप को पगड़ी और लहरिया लाए जी, बहन की चुनरी भूल आए, सौ-सौ नाम धराए जी। इसके अलावा,
“राधा रानी के नथ पे मोर, नाचे थई-थई”महिलाएं ससुराल में झूला झूलती है तो उनकी सहेलियां उनसे मज़ाक करने से भी नहीं चूकती। वे कहती हैं , दुरानी-जिठानी ताने मारती, हे री काहे की तेरी मात, काहे के तेरे वीर, तू झूले अपने सासरे री।
झूला झूलती महिलाओं में  कोई  लंबी पीगें बढाती है तो कोई झोंटा देकर उन्हें हवा में उछालती हैं। महिलाएं गाती हैं, “झूला तो पड़ गए अमुआं की डार पै ।”
तीज पर मेंहदी रचाने का सबका जुनून रहता है। राधा-कृष्ण को भी  कुछ इस तरह याद किया जाता है ,”आया सावन, बड़ा मन भावन, रिमझिम सी पड़े फुहार, राधा झूल रही कान्हा संग,दिल हुआ बाग बाग।”निश्चित ही सावन की तीज महिलाओं के लिए खास खुशी और उन्मुक्तता का पर्व है।जिसके माध्यम से विवाहिताओं का मायके से मिलन का भी अवसर बनता है।तीज के लोकगीतों में रची बसी भारतीय संस्कृति का लुप्त होते जाना व अब झूले न पड़ना चिन्ताजनक है ,इन्ही लोकपर्वों से समाज व देश को सुसंस्कृति की प्राण वायु मिलती है।यही वे पर्व है जो समाज मे एकता,प्रेम व बंधुत्व का संचार करते है।

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