आध्यात्मिक गुरुओं का मानना है कि अपने मस्तिष्क में बेकार की सूचना संग्रहीत न करें, अनुपयोगी को निकाल फेंकें, तभी आपका मन उच्च विचार ग्रहण करने में समर्थ होगा।’ अवांछित, अशोभनीय वस्तुओं या विचारों को सहेजे रखने से नैराश्य पनपता है और हमारा शारीरिक तथा आध्यात्मिक बल क्षीण होता है।
उन्नयन के लिए सीखते रहना जरूरी है। जन्म से मरण तक सीखने की प्रक्रिया का नाम ही जीवन है। किंतु जाने-अनजाने बहुत कुछ नकारात्मक सीख लिया जाता है। निरक्षर वे नहीं जो पढ़-लिख नहीं सकते, बल्कि वे हैं जिनमें अनुपयोगी सीख को तिलांजलि दे डालने और दोबारा सही बातें सीखने का माद्दा नहीं है।
इसी प्रकार मन-चित्त में बैठा दिए गए पूर्वाग्रह और कुत्सित धारणाएं भी जीवन में अवरोध उत्पन्न करती हैं। मन अवांछित भावनाओं, भ्रांतियों, मिथ्याग्रहों, दुराग्रहों से ठुंसा होगा तो उसमें प्रगतिशील, पाक और नेक विचारों का प्रवेश कैसे होगा/ फिर तो नीरसता पसरेगी, जीवंतता ठप होगी, हम जड़ हो जाएंगे। व्यक्तिगत बेहतरी में सीखने से ज्यादा अहमियत गैरजरूरी तत्वों को दरकिनार करने की होती है।
कला, कौशल या विद्या सीखने की शर्त है कि अभी तक जो हम जानते, सोचते, समझते आए हैं उसे अंतिम सत्य न मानें और उसकी पुनरीक्षा में हिचकें नहीं बल्कि अच्छी चीजों को अपनाने के लिए तत्पर रहें। मौजूदा मान्यताओं और मूल्यों को श्रेष्ठ तथा असंशोधनीय मानते हुए इनमें जकड़े रहने का अर्थ है नए के प्रति संशय या दुराव भाव को सींचते रहना।
भले ही व्यक्ति अपने क्षेत्र में पारंगत हो, अगर उसके मन में यह घर कर जाए कि इससे आगे शेष कुछ नहीं तो उसकी वैचारिक प्रगति अवरुद्ध समझें। शरीर में नई कोशिकाएं इसलिए जन्म लेती हैं ताकि पुरानी को प्रतिस्थापित कर दिया जाए। बेहतरी का सही निर्णय वही लेगा जो मौजूदा धारणाओं और मान्यताओं की पुनरीक्षा में समर्थ है। इस परिवर्तनशील संसार में प्रत्येक उच्चतर स्तर में आपको अभिनव संस्करण के तौर पर स्वयं को प्रस्तुत करना होगा। ज्ञान के प्रवेशद्वार सीलबंद होंगे तो नई सोच विकसित नहीं होगी।
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