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‘तुलसी’ के गांव से आए थे महंत लक्ष्मीनारायण; जैतुसाव मठ को छुआछूत के खिलाफ और आंदोलन का बनाया था अखाड़ा

रायपुर: महंत लक्ष्मीनारायण दास असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन के साथ सामाजिक सुधार आंदोलनों के भी अगुवा थे।महात्मा गांधी की अगुवाई में चले स्वतंत्रता संग्राम ने समाज के हर वर्ग को जोड़ा था। गांधी के इसी मंत्र ने रायपुर में वैष्णव परंपरा के एक मठ को स्वतंत्रता आंदोलन की धुरी बना दिया। स्वतंत्रता संग्राम की अनसुनी कहानियों की सीरीज में आज कहानी रायपुर के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महंत लक्ष्मी नारायण दास की…रायपुर का प्रतिष्ठित जैतूसाव मठ वैसे तो भगवान श्रीराम के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहां वैष्णव भक्ति परंपरा की नींव पहले महंत बाबा बिहारी दास ने डाली थी, लेकिन इसको प्रसिद्धि के शिखर पर ले गए महंत लक्ष्मी नारायण दास। वे मठ की परंपरा में भगवान के प्रमुख सेवायत और सर्वराकार थे, लेकिन उन पर महात्मा गांधी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने खुद को स्वतंत्रता आंदोलन में झोंक दिया।अभी हाल ही में महंत लक्ष्मी नारायण दास की यह प्रतिमा मठ में उनके आराध्य भगवान राम के मंदिर के पास स्थापित की गई।जैतूसाव मठ ट्रस्ट से जुड़े अजय तिवारी बताते हैं, महंत लक्ष्मी नारायण दास का जन्म 29 मई 1900 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिला स्थित राजापुर में हुआ था। यह रामचरित मानस के रचयिता और संत गोस्वामी तुलसी दास का गांव है। पांच साल की आयु में वे अपनी मां के साथ जैतूसाव मठ आए थे। 1918 में उन्हें मठ का महंत बना दिया गया। उन्होंने सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा तक की पढ़ाई की थी।उम्र बढ़ने के साथ महंत लक्ष्मी नारायण दास मठ के धार्मिक कार्यों के साथ-साथ सामाजिक गतिविधियों में शामिल होते गए। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी का समाज पर असर देखा और विद्रोह की भावना बलवती होती रही। यह वह दौर था जब महात्मा गांधी देश भर का दौरा कर रहे थे। 1920 में गांधी जी पहली बार छत्तीसगढ़ आए और प्रवचन किया। उनके विचारों ने महंत लक्ष्मी नारायण दास को भीतर तक प्रभावित किया।इसी जगह पर 1933 में महात्मा गांधी ने अपना प्रवचन दिया था।उसी साल महंत लक्ष्मी नारायण कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में पहुंच गए। उसके बाद हर आंदोलन में उनकी भूमिका मजबूत होती गई। पंडित सुंदरलाल शर्मा, खूबचंद बघेल, नत्थू जगताप, वामनराव लाखे, बैरिस्टर छेदीलाल, ठाकुर प्यारेलाल, शिवदास डागा जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नियमित तौर पर मठ में बैठने लगे थे। यहीं से आंदोलन की रणनीति बनती। कहीं कोई मदद भेजनी होती तो उसकी तैयारी होती।कोई नेता बाहर से आता तो मठ में ही ठहरता। उसके आने-जाने का प्रबंध होता। आजादी के बाद भी सार्वजनिक जीवन में उनकी सहभागिता रही। वे मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पहले अध्यक्ष बने। 15 मार्च सन् 1987 को उनका स्वर्गवास हुआ।यह महावीर व्यायामशाला आज भी स्वतंत्रता संग्राम की यादों से जुड़ता है।युवकों को संगठित करने 1910 में स्थापित किया अखाड़ाअजय तिवारी बताते हैं, महंत लक्ष्मी नारायण दास के प्रयासों से ही मठ में एक अखाड़ा स्थापित हुआ। महावीर व्यायामशाला 1910 में स्थापित हुआ। इसका उद्देश्य समाज के नवयुवकों को राष्ट्र हित में संगठित करना था। यह ठीक उसी प्रकार की कोशिश थी, जैसा बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में अखाड़ों और गणेश उत्सव समितियों की स्थापना के साथ की थी। इस अखाड़े ने छत्तीसगढ़ के बड़े पहलवान दिए हैं। यह व्यायामशाला आज भी संचालित है।रायपुर में खादी वस्त्रों की पहली प्रदर्शनी उन्हीं की मदद से लगीकांग्रेस ने 1920 से असहयोग आंदोलन शुरू किया। प्रमुख केंद्रों में विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाने लगी। रायपुर में भी ऐसा हुआ। विदेशों से आए कपड़ों का बहिष्कार कर हाथ से बुने कपड़ों पर जोर दिया जाने लगा। इसके लिए एक खादी कपड़ों की प्रदर्शनी की सोच पनपी। प्रशासन जगह देने को तैयार नहीं था। ऐसे में महंत लक्ष्मी नारायण दास की मदद से रावण भाठा मैदान में पहली खादी प्रदर्शनी लगी। इस प्रदर्शनी ने कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को मंच प्रदान किया।रायपुर की पुरानी बस्ती में स्थित यह मठ अब भी सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र है।सक्रियता ऐसी थी कि रायपुर के पांडवों में भीम कहे गएआंदोलन के जोर पकड़ने के साथ महंत लक्ष्मी नारायण दास की सक्रियता भी बढ़ती गई। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन तक वे रायपुर के अग्रणी नेता बन गये थे। वे लगातार विदेशी कपड़ों और शराब के खिलाफ धरना, प्रदर्शन और रैलियों के नेतृत्व करते रहे। 13 अप्रैल 1930 को गठित महाकौशल राजनीतिक परिषद संघर्ष समिति के वे प्रमुख सदस्य थे। इसकी वजह से उनको रायपुर के पांच पांडव में उन्हें भीमसेन कहा जाने लगा। बाकी चार पांडव में वामनराव लाखे, ठाकुर प्यारेलाल, मौलाना अब्दुल रऊफ खान और शिवदास डागा का नाम आता है।पहला राष्ट्रीय विद्यालय शुरू कियाजैतूसाव मठ के अजय तिवारी बताते हैं, आजादी के आंदोलन में भाग लेने वाले विद्यार्थियों को किसी सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं मिलता था। ऐसे में महंत लक्ष्मी नारायण दास ने 1921 में पहला राष्ट्रीय विद्यालय शुरू किया। यह अब रायपुर कलेक्ट्रेट के पास बाल आश्रम के तौर पर है। यह स्कूल भी राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों का केंद्र रहा। यहां साइक्लोस्टाइल मशीन लगी थी। यहीं से आंदोलन के पर्चे आदि छापकर शहर में लगाए जाते थे। वहां एक चरखा विद्यालय भी चला। स्कूली विद्यार्थी भी संदेश भेजने, पर्चे बांटने और नारा लगाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे। मठ के छात्रावास में रह रहे विद्यार्थी भी राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल थे। उनमें से कई छात्र जेल भी गए।इसी कुएं से पानी लेकर गांधी ने छुआछूत की कुरीति के खिलाफ आंदोलन का शंखनाद किया था।साढ़े पांच साल से अधिक जेल में काटे29 जनवरी 1932 को पेशावर दिवस मनाते हुये उन्हें नंद कुमार दानी और डॉ. खूबचंद बघेल के साथ गिरफ्तार किया गया। व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में भी उनकी भागीदारी थी। 27 नवंबर 1940 को अपने 74 साथियों के साथ उन्हें माना में गिरफ्तार किया गया। भारत छोड़ो आंदोलन में गांधी जी का भाषण सुनने वे मुंबई-तत्कालीन बॉम्बे गये थे। वहां से लौटते हुये 9 अगस्त 1942 को उन्हें मल्कापुर स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। उनके साथ पं. रविशंकर शुक्ल, शिवदास डागा, द्वारिका प्रसाद मिश्र आदि भी पकड़े गए थे। महंत लक्ष्मी नारायण दास को दासता के खिलाफ आंदोलनों की वजह से 5 वर्ष 6 माह 15 दिन की जेल काटनी पड़ी थी।गांधी जी ने यहीं से छेड़ी थी छुआछूत के खिलाफ लड़ाईअजय तिवारी बताते हैं, 1933 में गांधी जी एक बार फिर छत्तीसगढ़ पहुंचे थे। इस बार उनकी यात्रा दुर्ग से शुरू हुई। रायपुर में वे पं. रविशंकर शुक्ल के यहां गए। जैतूसाव मठ भी उनका ठिकाना बना। यहां एक छोटा सा प्रवचन मंच है जहां चबूतरे से गांधी जी ने प्रवचन किया था। मठ में मौजूद कुएं से उन्होंने एक भंगी-सफाई कर्मी की बेटी से पानी लेकर पीया। पानी निकालने वाले भी भंगी ही थे। भंगी समाज को उस समय लोग अछूत मानते थे। लेकिन गांधी जी के प्रभाव से कांग्रेस के नेताओं, स्वयंसेवकों ने उसी बच्ची से पानी लेकर पीया। उसके बाद भंगी समाज के लोगों को लेकर गांधी जी मठ के मंदिर पहुंचे। यह मंदिर प्रवेश की भी क्रांतिकारी घटना थी। इसने स्वतंत्रता आंदोलन को गहरे तक प्रभावित किया।

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